सोमवार, 19 अगस्त 2013

बदलते दौर का ‘मीडिया सेंसरशिप’ !


 
बदलते दौर का मीडिया सेंसरशिप’ !

n  अतुल सिन्हा

1975 में जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगाई थी तब भी सत्ता के खिलाफ बोलने या लिखने वालों को जेल में डाला जाता था। कुछ ऐसा ही तब हुआ था जब बिहार में प्रेस बिल लाया गया और अभिव्यक्ति की आज़ादी खत्म कर दी गई। प्रेस सेंसरशिप को लेकर लंबी बहसें हुईं, देश भर में प्रदर्शन हुए और आखिरकार सरकार को अपने फैसले वापस लेने पड़े।

पिछले दो दशकों में बहुत कुछ बदल गया - मीडिया का चरित्र, सत्ता और मीडिया के रिश्ते, खबरों का अंदाज़ और उन्हें लिखने, छापने और दिखाने के तरीके। नए मीडिया के इस दौर में लिखने और खुद को अभिव्यक्त करने के इतने प्लेटफॉर्म खुल गए कि बोलने और लिखने की सीमाएं खत्म हो गईं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर हर आदमी अब धड़ल्ले से अपने विचार व्यक्त कर रहा है, हर मुद्दे पर अपनी राय दे रहा है और इसके ज़रिये तमाम मुद्दों पर स्वस्थ बहस भी छिड़ रही है। ऐसे में अगर कंवल भारती फेसबुक पर आईएएस दुर्गा शक्ति मामले में हो रही राजनीति पर अपनी राय दे रहे हैं या कोई भी व्यक्ति किसी भी सरकार के कामकाज पर अपनी बात कह रहा है तो भला इसमें बुराई क्या है? आखिर क्यों सरकार के कारिंदों की नींद हराम हो जाती है? आखिर क्यों उन्हें ऐसा लगता है कि फेसबुक, ट्विटर या दूसरी साइट्स पर लिखा जाने वाला कोई भी आलेख या विचार उनकी ज़मीन खिसका सकता है?

क्या सचमुच सरकार पत्रकारों या मीडिया से जुड़े लोगों पर लगाम कसना चाहती है, क्या सचमुच अघोषित तौर पर आज भी मीडिया पर सेंसरशिप है, या कंवल भारती को फेसबुक पर एक कमेंट करने के लिए गिरफ्तार करने के पीछे महज कोई निजी दुश्मनी का मामला है।

सोशल मीडिया के असर से डरे सहमे हुक्मरानों और उनके सिपहसालारों ने पहले भी कई बार अभिव्यक्ति की आज़ादी पर पहरे लगाने की कोशिशें की। चाहे बाल ठाकरे के निधन के बाद फेसबुक पर अपनी राय ज़ाहिर करने वाली महाराष्ट्र की दो लड़कियों की गिरफ्तारी का मामला हो या फिर एक कांग्रेस के बारे में फेसबुक पर अपनी बात कहने वाले आंध्र प्रदेश के एक आरटीआई कार्यकर्ता को जेल में डालने की घटना हो, ये बात साफ है कि सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत से सत्ता और सियासत के खिलाड़ी डरे सहमे नज़र आने लगे हैं।

गौर करने वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर इसी साल 16 मई को अपने एक फैसले में कहा है कि फेसबुक पर अपनी राय जाहिर करने वालों की गिरफ्तारी तबतक नहीं हो सकती जबतक इसके लिए किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का निर्देश न हो, वह भी तब जब उस टिप्पणी से वाकई माहौल बिगड़ने का खतरा हो। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के तमाम निर्देशों के बारे में न तो स्थानीय पुलिसवालों को कोई जानकारी है और न ही ऐसे मामलों में किसी नियम कानून की परवाह ही की जाती है। ज्यादातर मामलों में सीधे तौर पर आपसी रंजिश या किसी को सबक सिखाने की नीयत होती है।

सवाल है कि क्या आप इसे मीडिया सेंसरशिप का नाम दे सकते हैं? क्या मीडिया के मौजूदा चरित्र को देखते हुए तमाम सत्ता प्रतिष्ठान और सत्ताधारी पार्टियां इस खतरे को ज्यादा गंभीर नहीं मानतीं कि उनके बारे में क्या लिखा या दिखाया जा रहा है? तो आखिर इस आदर्श स्थिति में सोशल मीडिया पर अपनी राय ज़ाहिर करने वालों पर ये ख़तरा क्यों है? शायद इसलिए कि ऐसे लोगों के विचार उनके निजी हैं, ऐसे लोग किसी संस्थान से नहीं जुड़े हैं और शायद इसलिए भी कि आज के इस दौर में उनके विचार को व्यापक तरीके से पढ़ा-समझा जा सकता है, एक खास तबके में उसकी अहमियत है और  शायद यही डर उनके खिलाफ बेवजह आरोप लगाकर कार्रवाई करने को विवश भी करता है। सीधे तौर पर यह कहा जा सकता है कि सोशल मीडिया के बढ़ते असर का आतंक अब दिखने लगा है और सेसरशिप की नई परिभाषा भी अब गढ़ी जीने लगी है।        
(12 अगस्त 2013 को 'दैनिक ट्रिब्यून' में प्रकाशित)